अगर पुलिस FIR नहीं लिख रही तो क्या करना चाहिए ,156(3)crpc

 अगर पुलिस FIR नहीं लिख रही तो क्या करना चाहिए 


आज हम आपको बहुत महत्वपूर्ण जानकारी देंगे। पिछले कुछ समय के दौरान ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जब पुलिस अधिकारियों ने नागरिकों के प्राथमिक सूचना रिपोर्ट अर्थात FIR दाखिल करने से इनकार कर दिया है और वे इसके लिए कई कारणों का हवाला देते हैं, जो वास्तव में कई बार संदेहास्पद भी होते हैं। लेकिन आम नागरिक FIR दर्ज कराने से संबंधित अपने अधिकारों की सही जानकारी के अभाव में मन मसोसकर रह जाते हैं और बिना FIR दर्ज कराए ही रह जाते हैं। अतः आम नागरिकों को सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से इस लेख में हम पुलिस द्वारा FIR न लिखे जाने पर आम नागरिकों द्वारा उठाए जाने वाले आवश्यक कदमों की जानकरी दे रहे हैं।

सबसे पहले यह जान लें कि अपराध कितने प्रकार के होते हैं।


 अपराध दो तरह के होते हैं-

 1.संज्ञेय एवं

 2. असंज्ञेय अपराध।

 


(1). संज्ञेय अपराध:- दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 154 के अनुसार वे अपराध जो गंभीर प्रकृति के होते है एवं ऐसे अपराध में पुलिस अधिकारी बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता हैं,ऐसे मामलों में पुलिस को FIR लिखनी ही पड़ती हैं। जैसे:- हत्या, बलात्कार, डकैती, लूट आदि।

2.असंज्ञेय अपराध:-  वे अपराध जो गंभीर प्रकृति नहीं होते हैं, CRPC की धारा 155(2) के अनुसार पुलिस बिना वारंट के असंज्ञेय अपराध में किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर सकती न ही FIR दर्ज कर सकती हैं। असंज्ञेय अपराध की शिकायत को पुलिस अपने एन.सी.आर (NCR) रजिस्टर में लिखेंगी एवं असंज्ञेय अपराध में मजिस्ट्रेट शिकायत दर्ज करते हैं। इसके लिए हमें 155 (2) सीआरपीसी में प्रार्थना पत्र मजिस्ट्रेट के समक्ष योजित करना पड़ता है

अगर गंभीर अपराध की FIR थाने में दर्ज न कि जाए तब क्या करें:


अगर ऐसा होता हैं कि गम्भीर (संज्ञेय) अपराध की शिकायत या FIR पुलिस थाने में नहीं लिखी जा रही है तब आप :-

1. संबंधित थाना प्रभारी के वरिष्ठ अधिकारी से शिकायत कर सकते हैं।



2.दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156 (3) के अंतर्गत क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट के पास जा सकते हैं। इस मामले में पेश किए गए सबूतों और बयान से जब अदालत संतुष्ट हो जाए तो वह पुलिस को निर्देश देती है कि इस मामले में केस दर्ज कर छानबीन करे तथा मजिस्ट्रेट धारा 190 में जांच के आदेश दे सकते हैं।

3. आप सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार धारा 482 के तहत हाईकोर्ट में FIR दर्ज करने की अपील दायर कर सकते हैं। कोर्ट FIR नहीं लिखने वाले संबंधित अधिकारी के खिलाफ संज्ञान ले सकता है एवं उसके खिलाफ कार्यवाही के निर्देश जारी कर सकता है।

असंज्ञेय अपराध के लिए


मामला असंज्ञेय अपराध का हो तो अदालत में सीआरपीसी की धारा-200 के तहत परिवाद/कंप्लेंट केस दाखिल किया जाता है। कानूनी जानकार डी. बी. गोस्वामी के मुताबिक कानूनी प्रावधानों के तहत शिकायती को अदालत के सामने तमाम सबूत पेश करने होते हैं। उन दस्तावेजों को देखने के साथ-साथ अदालत में प्रीसमनिंग एविडेंस होता है। यानी प्रतिवादी को समन जारी करने से पहले का एविडेंस रेकॉर्ड किया जाता है।

प्रतिवादी कब बनता है आरोपी

शिकायती ने जिस पर आरोप लगाया है, वह तब तक आरोपी नहीं है, जब तक कि कोर्ट उसे बतौर आरोपी समन जारी न करे। यानी शिकायती ने जिस पर आरोप लगाया है, वह प्रतिवादी होता है और अदालत जब शिकायती के बयान से संतुष्ट हो जाए तो वह प्रतिवादी को बतौर आरोपी समन जारी करती है और इसके बाद ही प्रतिवादी को आरोपी कहा जाता है, उससे पहले नहीं। क्रिमिनल लॉयर अजय दिग्पाल के मुताबिक कंप्लेंट केस में शिकायती के बयान से अगर अदालत संतुष्ट न हो तो केस उसी स्टेज पर खारिज कर दिया जाता है। एक बार अदालत से समन जारी होने के बाद आरोपी अदालत में पेश होता है और फिर मामले की सुनवाई शुरू होती है।


केस को पुलिस जांच के लिए भेजने से पहले मजिस्ट्रेट को स्वविवेक का इस्तेमाल करना चाहिए।


हाईकोर्टने एक निर्णय में कहा है कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत किसी भी परिवाद को पुलिस को अनुसंधान के लिए भेजने से पहले न्यायिक मजिस्ट्रेट को अपने स्वविवेक का उपयोग करना चाहिए। न्यायिक अधिकारी को देखना चाहिए कि संज्ञेय अपराध घटित हो रहा है या नहीं?

कोई भी मजिस्ट्रेट परिवाद को धारा 156 (3) के तहत नहीं भेजेगा जब तक कि परिवाद को पढ़ने से प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध घटित होना नहीं पाया जाए। अदालत ने कहा कि मजिस्ट्रेट चाहे तो परिवाद के समर्थन में शपथ पत्र भी मांग सकता है और उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए की धारा 156 (3) के साथ ही संज्ञान के लिए कोई वैकल्पिक उपचार उपलब्ध है।


न्यायाधीश महेश चन्द्र शर्मा ने यह आदेश एक आपराधिक मामले में देवी दत्त की याचिका का निपटारा करते हुए दिया। अदालत ने कहा कि कोई भी परिवाद न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर होने पर वे उसे धारा 156 (3) के तहत अनुसंधान के लिए तब तक नहीं भेजेंगे जब तक कि प्रथम दृष्टया इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाएं कि परिवादी ने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए कोई प्रयास किया है या नहीं और उसके प्रथम दृष्टया क्या साक्ष्य हैं।

मजिस्ट्रेट को यह भी देखना चाहिए कि परिवाद मे किसी आरोपी का नाम दुर्भावना से तो नहीं लिख दिया है और किस-किस आरोपी के खिलाफ संज्ञेय अपराध प्रकट होता है।

अदालत ने कहा कि धारा 156 (3) के तहत परिवाद को अनुसंधान के लिए भेजने का आदेश मजिस्ट्रेट के द्वारा खुद लिखित हाेना चाहिए। 

क्या मजिस्ट्रेट दे सकता है CBI अन्वेषण (Investigation) का आदेश?

सीआरपीसी की धारा 156 (3) के अनुसार, कोई भी सशक्त मजिस्ट्रेट, धारा 190 सीआरपीसी के अंतर्गत, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को किसी भी संज्ञेय अपराध का अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है।

दूसरे शब्दों में, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3), किसी भी संज्ञेय मामले की जांच करने के लिए एक मजिस्ट्रेट को पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को निर्देशित करने का अधिकार देती है, जिस पर ऐसे मजिस्ट्रेट का अधिकार क्षेत्र है। हाँ, यह अवश्य है कि जब एक मजिस्ट्रेट, धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश देता है, तो वह केवल ऐसा अन्वेषण करने के लिए एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को ही निर्देशित कर सकता है, न कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को।



गौरतलब है कि, केरल राज्य बनाम कोलाक्कन मूसा हाजी 1944 Cri LJ 1288 (Ker) के मामले में केरल हाईकोर्ट ने और कुलदीप सिंह बनाम राज्य 1994 Cri LJ 2502 (Del) के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने यह साफ़ किया था कि, एक मजिस्ट्रेट, सीआरपीसी की धारा 156(3) के अंतर्गत अपनी शक्तियों के प्रयोग में, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को अन्वेषण का निर्देश देने के अलावा किसी अन्य एजेंसी को अन्वेषण का आदेश देने की अथॉरिटी नहीं रखता है।

उल्लेखनीय है कि इंदुमती एम. शाह बनाम नरेन्द्र मुल्जीभाई असरा 1995 Cri LJ 918 के मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने यह बात दोहराई थी कि धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत अधीनस्थ अदालत, धारा 156 के तहत संदर्भित को छोड़कर, किसी अन्य प्राधिकरण को किसी मामले का अन्वेषण नहीं सौंप सकती।

दरअसल इस मामले में मजिस्ट्रेट ने धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत, सीबीआई को एक मामले का अन्वेषण करने का निर्देश दिया था। इसी निर्देश को इस मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने अवैध और अनुचित माना था।

इसी क्रम में, सीबीआई बनाम गुजरात राज्य, (2007) 6 SCC 156 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त सिद्धांत को दोहराया है कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रियल पावर को बढ़ाया नहीं जा सकता। एक थाने के प्रभारी अधिकारी को जांच का निर्देश देने से परे और ऐसा कोई निर्देश सीबीआई को नहीं दिया जा सकता है।दरअसल, सीबीआई बनाम गुजरात राज्य मामले में एक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने सीबीआई को एक मामले का अन्वेषण करने का आदेश दे दिया था, जिसे बाद में उच्चतम न्यायालय ने अनुचित ठहराया था।


इसके अलावा, सीबीआई बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2001) 3 SCC 333 के निर्णय में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि एक मजिस्ट्रेट, सीआरपीसी की धारा 156(3) के अंतर्गत अपनी शक्तियों के उपयोग में, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को अन्वेषण का निर्देश देने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता है, और ऐसा कोई भी आदेश, एक मजिस्ट्रेट द्वारा सीबीआई को नहीं दिया जा सकता है।

क्या गंभीर (संज्ञेय) अपराध शिकायत या FIR किसी भी पुलिस थाने में की जा सकती हैं:

जी हाँ। अक्सर ऐसा होता हैं कि कही कोई हत्या या बलात्कार या कोई अन्य गंभीर अपराध अचानक हो गया हो तो इसकी शिकायत आप किसी भी नजदीकी पुलिस थाने में कर सकते हैं। पुलिस अधिकारी ऐसी घटना का तुरंत संज्ञान लेगी। इस प्रकार की गई FIR को जीरो FIR कहा जाता है।



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